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अ॒यं स शि॑ङ्क्ते॒ येन॒ गौर॒भीवृ॑ता॒ मिमा॑ति मा॒युं ध्व॒सना॒वधि॑ श्रि॒ता। सा चि॒त्तिभि॒र्नि हि च॒कार॒ मर्त्यं॑ वि॒द्युद्भव॑न्ती॒ प्रति॑ व॒व्रिमौ॑हत ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayaṁ sa śiṅkte yena gaur abhīvṛtā mimāti māyuṁ dhvasanāv adhi śritā | sā cittibhir ni hi cakāra martyaṁ vidyud bhavantī prati vavrim auhata ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अयम्। सः। शि॒ङ्क्ते॒। येन॑। गौः। अ॒भिऽवृ॑ता। मिमा॑ति। मा॒युम्। ध्व॒सनौ॑। अधि॑। श्रि॒ता। सा। चि॒त्तिऽभिः॑। नि। हि। च॒कार॑। मर्त्य॑म्। वि॒ऽद्युत्। भव॑न्ती। प्रति॑। व॒व्रिम्। औ॒ह॒त॒ ॥ १.१६४.२९

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:29 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:19» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:29


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भूमि के विषय में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) सो (अयम्) यह बछड़े के समान मेघ भूमि को लख (शिङ्क्ते) गर्जन का अव्यक्त शब्द करता है कौन कि (येन) जिससे (ध्वसनौ) ऊपर, नीचे और बीच में जाने को परकोटा उसमें (अधि, श्रिता) धरी हुई (अभीवृता) सब ओर पवन से आवृत (गौः) पृथिवी (मायुम्) परिमित मार्ग को (प्रति, मिमाति) प्रति जाती है (सा) वह (चित्तिभिः) परमाणुओं के समूहों से (मर्त्यम्) मरणधर्मा मनुष्य को (चकार) करती है उस पृथिवी (हि) ही में (भवन्ती) वर्त्तमान (विद्युत्) बिजुली (वव्रिम्) अपने रूप को (नि, औहत) निरन्तर तर्क-वितर्क से प्राप्त होती है ॥ २९ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे पृथिवी से उत्पन्न हो उठकर अन्तरिक्ष में बढ़ फैल मेघ पृथिवी में वृक्षादि को अच्छे सींच उनको बढ़ाता है, वैसे पृथिवी सबको बढ़ाती है और पृथिवी में जो बिजुली है वह रूप को प्रकाशित करती। जैसे शिल्पी जन क्रम से किसी पदार्थ के इकट्ठा करने और विज्ञान से घर आदि बनाता है, वैसे परमेश्वर ने यह सृष्टि बनाई है ॥ २९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्भूमिविषयमाह ।

अन्वय:

सोऽयं वत्सो मेघो भूमिं शिङ्क्ते येन ध्वसनावधि श्रिताऽभीवृता गौर्भूमिर्मायुं प्रतिमिमाति सा चित्तिभिर्मर्त्यं चकार। तत्र हि भवन्ती विद्युद्वव्रिं च न्यौहत ॥ २९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) (सः) (शिङ्क्ते) अव्यक्तं शब्दं करोति (येन) (गौः) पृथिवी (अभीवृता) सर्वतो वायुना आवृता (मिमाति) गच्छति (मायुम्) परिमितं मार्गम् (ध्वसनौ) अधऊर्ध्वमध्यपतनार्थे परिधौ (अधि) उपरि (श्रिता) (सा) (चित्तिभिः) चयनैः (नि) (हि) किल (चकार) करोति (मर्त्यम्) मरणधर्माणम् (विद्युत्) तडित् (भवन्ती) वर्त्तमाना (प्रति) (वव्रिम्) स्वकीयं रूपम् (औहत) ऊहते ॥ २९ ॥
भावार्थभाषाः - यथा पृथिव्याः सकाशादुत्पद्याऽन्तरिक्षे बहुलो भूत्वा मेघः पृथिव्यां वृक्षादिकं संसिच्य वर्द्धयति तथोर्वी सर्वं वर्द्धयति, तत्रस्था विद्युद्रूपं प्रकाशयति। यथा शिल्पी क्रमेण चित्या विज्ञानेन गृहादिकं निर्मिमीते तथा परमेश्वरेणेयं सृष्टिर्निर्मिता ॥ २९ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे पृथ्वीवर उत्पन्न होऊन अंतरिक्षात प्रसृत होऊन मेघ पृथ्वीवर वृक्षांना सिंचित करून त्यांना वाढवितात व पृथ्वीत जी विद्युत आहे ती रूपाला प्रकाशित करते. जसे कारागीर क्रमाने पदार्थांना एकत्र करून व्यवस्थित ज्ञानाने घर बांधतो तशी परमेश्वराने ही सृष्टी निर्माण केलेली आहे. ॥ २९ ॥